सोमवार, 15 अक्तूबर 2012

प्रतीक्षा (कहानी)



    दोपहर के दो बज रहे थे ,सीमा ने उचटती सी नजर घड़ी पर डाली, अभी चार बजे उसे कोर्ट जाना है.  एक महत्वपूर्ण  केस पर बहस के लिए और अभी तो  उसे तैयारभी होना है....वह न जाने कब तक सोती रही थी. आँखों में आंसू भी सूख चुके थे. दर्द की परछाइयां शायद नींद के आगोश में जाकर मन की गहराईयों में कहीं विलीन हो चुकी थीं. ...वह धीरे से उठी.. बाथरूम में जाकर ठन्डे पानी से हाथ ,पाँव, चेहरा धोया और धो पोंछ कर बहा दिया उदासी, दर्द की शेष रही लकीरों को. ..पानी की बूंदों में घुल गए मन के आंसू. मेक अप की हलकी परतों में चेहरे  और आँखों की सूजन को छिपाकर  सादी साड़ी में सुसज्जित मिसेज सीमा भारद्वाज ,एक कुशल अधिवक्ता, नगर की प्रसिद्द लेखिका, समाजसेविका चल पड़ी अपने मंजिल की सीढियां तय करने. ...जिन्दगी का यह रूप उसका निजी था. ..एक भोगा हुआ यथार्थ.. उसकी कविताओं की तरह काल्पनिक नहीं.सच्चाई के धरातल पर खडी आज सीमा भारद्वाज लड़ रही थी ..,जिन्दगी के अनेक मोर्चों पर. --एक साथ -,पति,बच्चे,गृहस्थी, उनसे जुड़ी परेशानियाँ, सामाजिक जिम्मेदारियां, ..सभी कुछ.!
    आज सुबह से ही वातावरण तनावग्रस्त था. पति सौरभ नाराज थे और तनाव की लकीरें उनके चेहरें पर साफ़ साफ़ नजर आ रही थीं. ..कारण भी स्पष्ट नहीं था...अलमारी की सफाई न होने, या कप टूटने जैसी छोटी छोटी बातों पर भी उनका गुस्सा भड़क सकता था, ..यह तो वह जानती थी, पर इस हद तक?..वह अनुमान नहीं लगा सकी थी. ..बेटियां अपना होमवर्क कर रही थीं, और वह किचन में व्यस्त थी. ..अचानक आई विपत्ति की तरह उनका चीखना चिल्लाना सुन वह बदहवास हो दौड़ी थी, आलमारी में बिखरी किताबें उसका मुंह चिढ़ा रही थीं. और सौरभ जोर जोर से बस डांटे जा रहे  थे. वह उन्हें समझाने का प्रयत्न करने लगी,अपनी सफाई में अभी कुछ कहने को मुंह खोला ही था क़ि लहराती हुई एक किताब उसके पांवों से टकराई, ..और फिर एक जोरदार थप्पड़.. 
बातों के शूल अपमान की हदें पार कर चुके थे, वह बस चुपचाप रोती रही, और रोते रोते ही बिस्तर पर गिरकर सो गयी. किसी ने उसे जगाया भी नहीं. ... बेटियां स्कूल जा चुकी थीं...सौरभ अपने कमरे में बैठ कर कोई किताब पढ़ रहे थे. उठी तो सब कुछ शांत था, ...एक तूफान के गुजर जाने के बाद की शांति .उसने राहत की सांस ली.उसे अपने अपमान और दर्द की बात याद नहीं आई, बल्कि -''घर में शांति है, यह बात उसे सुकून देने वाली लगी. ...शायद हर आम परिवार में घुटती.. जूझती हर नारी ऐसा ही सोचती है...वह इस अन्याय के खिलाफ आवाज भी नहीं उठा सकती या यों कहें क़ि आवाज उठाना भी नहीं चाहती, .......नारी विमर्श और नारी उत्पीडन के के लिए लिखने वाली ..उनके हक़ के लिए सामाजिक संस्थाओं के साथ आवाज मिलाती सीमा भारद्वाज अपने घर के दायरों में कैद ...कितनी विवश.. कितनी निरुपाय थी, ..यह बात सीमा के अतिरिक्त कौन  समझ सकता था?..पर वह कायर नहीं थी. वह एक हद तक खुद को स्वार्थी ही मानती थी. घर की शांति के लिए, बच्चों के भविष्य के लिए, खुद सौरभ के स्वास्थ्य के लिए, और दूसरों के सामने खुद को ,परिवार को लज्जित होने से बचाने के लिए.वह चुपचाप वर्षों से यह सब सहती आ रही थी. 
सौरभ के पिता नहीं थे, माँ बचपन में ही चल बसी थी. सौतेली माँ ने पाला था, पर उस पालन पोषण की कीमत उसके पिता की सम्पत्ति पर अपने सम्पूर्ण अधिकार के रूप में पाना चाहती थीं. और यह उन्होंने कर दिखाया धोखे से कागजों पर सौरभ के हस्ताक्षर लेकर. पर पिता की छोडी जमीन का एक बड़ा हिस्सा सौरभ के बेटे के नाम था, जो उनकी आँखों में खटकता रहता था. वह जब तब सौरभ को फोन कर ,उससे बहस करके ,अपशब्दों से , उसको अपमानित करती रहती थीं.बस वे तनाव ग्रस्त हो अपना गुस्सा कभी उस पर ,कभी बच्चों पर निकाला करते थे. 
 
इस आपाधापी में उसे बेहद प्यार करने वाला उसका अपना सौरभ कहीं खो गया था. प्रेम की बेल ही सुख़ गयी हो जैसे.. वह जितना समझाती ,वह उतना ही भड़क उठते. फलस्वरूप उसने अपना सब कुछ समय पर छोड़ दिया था. वह जान रही थी क़ि आज भी कुछ ऐसा ही हुआ होगा. उसने गहरी सांस ली. ....कार ड्राइव करते हुए सीमा अपनी सोच में इतनी डूब गयी थी क़ि सामने से आते एक ट्रक से टक्कर होते होते बची.वह काँप उठी..अगर मर जाती तो? ....अच्छा ही होता न ,..सब खटरागों से मुक्ति मिल जाती. ..अपनी इस क्षणिक कायरता पर मन ही मन मुस्करा उठी सीमा. मौत भी उसके भाग्य क़ि तरह उससे कतरा कर निकल गयी. ....कोर्ट आ गया था, जाने -अनजाने कई चेहरे नजर आ रहे थे. बाहर खडी गाड़ियों की कतार में गाड़ी पार्क कर वह कक्ष में जैसे ही घुसी, उसके मित्र सामने ही मिल गए थे. सीनियर से बातें करती हुई वह कोर्ट के अन्दर चली गई थी. आज बहस के दौरान सीमा नारी प्रतारणा के विरोध में जम कर बोली थी, शायद उसकी अपनी पीड़ा ,बेबसी एक माध्यम पाकर मुखरित हो उठी थी. सभी आज एक नई सीमा भारद्वाज को देख रहे थे. कोर्ट से लौटी तो तन मन थक कर चूर थे. एक कप चाय पीकर वह पलंग पर लेती ही थी क़ि 'कोमल जी' का फोन आ गया -''मिलन संघ में एक कवि गोष्ठी है, आजाइए, कब से फोन लगा रहा हूँ''. ---''मै सोचूंगी कोमल भाई, अभी तो बहुत थकी हुई हूँ'', उसने आँखे बन्द कर लीं.
बच्चे स्कूल से आ गए थे. सीमा का मन आज बहुत ही आकुल व्याकुल था. मन की बोझिलता को कम करने के लिए उसने कवि गोष्ठी में शामिल होने का मन बना लिया.बच्चों और सौरभ के लिए सब्जी बना कर और आटा भी गुंध कर फ्रिजमे रखदिया, शाम को लौट कर रोटियां बना लेगी. , थोड़ी देर बाद कवि गोष्ठी के लिए तैयार होकर सौरभ को चाय दे ,,शाम को लौटने की बात बता कर बाहर आते समय उसने सुना -''देर होने पर फोन कर देना,'' सौरभ कह रहे थे. यह सुलह की औपचरिकता थी.बच्चों को खाना खा लेने की हिदायत दे वह बाहर आ गयी. 
कवि गोष्ठी में मंच सञ्चालन करते समय ..पढी जाती कविताओं पर दाद देती, हर भावपूर्ण पंक्ति पर अपनी टिप्पणी देती, ..श्रोताओं की तालियों में गुम होती ...अपने मन के हाहाकार को सीमा साफ़ साफ़ सुन प् रही थी.तभी कोमल जी ने उसका नाम पुकारा--''अब मै आमंत्रित करता हूँ -अपने नगर की शान ,स्वयं सरस्वती स्वरूपा सीमा भारद्वाज को ''...वह शांत मनसे डायरी के पृष्ठ पलटने लगी. सोचा तो था क़ि प्रकृति प्रेम या पर्यावरण पर कोई सुनाएगी परभींगी आँखों ने यह कौन सी कविता ढूंढ़ निकली थी?...कविता के शब्द गूंज रहे थे''....जिन्दगी और सच्चाई के बीच ,...एक लम्बा फासला तय करती है,..ओरत की जिन्दगी ...रोटियां बनाते.. आँगन बुहारते.. क्या एक पल के लिए भी ..किसी ने सोचा?..कब टूटीं उसके सपनो की साँसें?..कब गिरे संवेदनाओं के ताजमहल?''
कविता के शब्द आँखों से आंसू बन पिघल रहे थे, ''सीमा जी, आप ठीक तो हैं न?''अनीता सिंह ने उसकी और पानी का गिलास बढाया था. ''हाँ, मै ठीक हूँ''... पानी पीकर वह कुछ स्वस्थ हो गयी थी. 
....
जिन्दगी कुछ और आगे बढ़ गयी थी.. सौरभ अब और भी अधिक क्रोधी हो गए थे. और जिम्मेदारियों से दूर भागने लगे थे. बेटे की शिक्षा, बेटियों को पढ़ना और उनके विवाह आदि सारे कार्य सीमा नेअकेले ही किये थे. .....पर वर्षों बाद इन डूबती उतराती साँसों के बीच ...मन में पल रही एक अंतहीन प्रतीक्षा थी क़ि ...आज न सही कल.. कभी उसका साथी लौट आएगा उसके पास ...उसे भी तो मेरे साथ की जरुरत होगी, ''...जीवन की अनंत यात्रा पर वह अकेली नहीं होगी, उसे ले जाने वाले चार हाथों में उसका चिर साथी भी शामिल होगा. ...अपने प्यार की पालकी उठाये...............बस प्रतीक्षा ही तो थी ..एक अंतहीन प्रतीक्षा. 




पद्मा मिश्रा 
मेरी कहानियां जिन्दगी के आसपास साँसें लेती हैं.
जीवन के सुख,दुःख, हर्ष विषाद प्रेम की सुन्दरतम अनुभूतियों  का दर्पण बन
समाज को सच दिखाना ही उनकी सार्थक अभिव्यक्ति है
भटके हुए कदमों को उनके सपनों की राह तक पहुंचाना और संवेदना 
के एक नए क्षितिज का निर्माण करना मेरी कहानियों की सृजन यात्रा का पाथेय है.

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