रविवार, 15 जुलाई 2012

चार कवितायेँ

पद्मा मिश्र अभी अभी सिक्किम -गंगटोक- दार्जिलिंग की यात्रा सेलौटी हूँ, प्रकृति के साक्षात्कार से अभिभूत उनकी कवितायेँ.



                     



                               [१] 
दूर तक जाती सड़क है,बिछ रही धरती हरित है,
बरसते जल धार में भी,रंग उसके अनगिनत हैं,
चल समीरण के सहारे ,कारवां बनते गए हैं.
पत्थरों को काट कर भी रास्ते बनते गए हैं.
स्वप्न मानव देखता है, नियति उसमे रंग भरती,
प्रकृति रोके राह फिर भी,कदम क्या रुकते कभी हैं?
पत्थरों को काट कर भी ,रास्ते बनते गए हैं.
तीस्ता के ये किनारे ,मित्र बन संग साथ मेरे,
उमड़ते घन घेरलेते, पर्वतों के विरल घेरे,
ये कहाँ पर आगई मै?बादलों के पंख धरकर,
मुक्त नभ में विचरता मन,उल्लसित नैनों के सहचर,
पर तभी भू खंड बरसा ,या अचानक भूमि खिसकी,
रुक गया था कारवां, और भय से सबकी सांसें अटकी,
हिय प्रकम्पित भीत थे जन ,था वहां निरुपाय जीवन,
रास्ते थे बन्द,वापस लौटना ..मायूस था मन,
पर एक आशा के सहारे,मनुज भी झुकते नहीं हैं,
फिर शुरू थी दीर्घ यात्रा,फिर कदम बढ़ने लगे हैं,
पत्थरों को काट कर भी रास्ते बनते गए हैं.
फिर शुरू थी दीर्घ यात्रा,फिर कदम बढ़ने लगे हैं,
दार्जिलिंग के हरित पथ पर फिर चले हम चपल,सत्वर,
हम सफ़र बन साथ चलते, चाय के बागान प्यारे,
धडकनों में बांध लूँ मै,ये सुहाने दृश्य सारे,
पर्वतों के उच्च शिखरों पर बरसती धार-बूंदें,
बादलों संग गा रही हैं आज मेघ मल्हार बूंदें
बूंद जुडती बूंद से जब, नव ताल यूँ बनते गए हैं,
पत्थरों को काट कर भी रास्ते बनते गए  हैं,
अक्षरों में गुंथती हूँ,प्रकृति की सौन्दर्य माला,
प्यार बरसता रहा नभ, भींगती यह ,काव्य-बाला

                  [२]
हों आँखों में सपने उमंगों भरा मन,
कदमों में दृढ़ता तो आकाश क्या है?
जो चाहत हो मंजिल को पाने की मन में,
हों कितनी भी बाधाएं,परवाह क्या है?
उड़ो मुक्त पंछी सा नीले गगन में,
हर एक भावना को खुला आसमा दो,
सिमट जायेंगी दूरियां एक पल में ,
जो सपनों को अपने प्यार की जुबान दो,
हवाओं के रुख को जो पहचान पाओ,
न देखो की मौसम का अंदाज़ क्या है?
चुनौती समयकी जो स्वीकार कर लो,
तभी बन सकेगी कोई कहानी,
थके हारे कदमों से मंजिल न मिलती,
न मिलती कभी जिन्दगी में रवानी,
नियति की घटाएं उमड़ती रहेंगी,
जो तूफ़ान से डर जाए,परवाज़ क्या है?




                   [३]
बैठ कर सागर किनारे सिर्फ लहरें ही न गिनना,
लक्ष्य पाने के लिए मंझधार भी सहना पडेगा.
शत प्रदीपित दीप तो क्या, संकल्प की दृढ़ता बनो तुम,
सर्जना के पंथ पर दिनमान सा जलना पड़ेगा.
आँधियों ने थम ली जब क्रांति- सूरज की पताका,
दर नहीं तूफ़ान का अंधियार को ढलना पड़ेगा.
शब्द जब आवाज देंगे ,शक्ति मन की तोलना तुम,
युग पुरुष हो ,समय का विश्वास भी बनाना पड़ेगा.
जो कलम के साथ हैं ,इतिहास उनकी भी सुनेगा,
अवनी अम्बर तक तुम्हें आलोक भी बनाना पड़ेगा.
रोशनी के पंथ पर विश्वास ले बढते चलो तुम,
जगुती की राह पर असिधार बन चलना पड़ेगा.
सभ्यता की राह में आने न दो बोझिल हवाएं,
मुक्त नभ में क्रांति की युग-धर बन बहना पड़ेगा



                   [४]
जिनकी राहों में सूरज खिला ना कभी,
उनको विश्वास का हौसला दीजिये.
उनकी राहों में दुःख का अँधेरा न हो,
एक दिया रोशनी का जला दीजिये.
हर तरफ रोशनी की चकाचौंध है,
गीत हैं, मीत हैं, स्वप्न के सौध हैं,
पर जहाँ पर अँधेरा ठहर सा गया,
जिन्दगी से भली लग रही मौत है.
उनके सपने भी जगमग दीवाली बनें
मन के आँगन में उनको जगह दीजिये.
नफरतों के शहर में कहीं खो गयी,
प्यार की, स्नेह ,विश्वास की भावना
हम बटें ना कभी ,साथ मिलकर चलें,
कुछ दिए प्यार के भी जला दीजिये.
लाख महलों में रोशन रहे जिन्दगी ,
झोंपड़ी में कभी भी अँधेरा ना हो,
आंसुओं में न डूबे  उम्मीदों का नभ,
दीप इतने जलें की सबेरा न हो.
सबके जीवन में खुशियाँ बिखरती रहें,
कुछ दिए 'स्नेह' के भी जला दीजिये.




                             ----- पद्मा मिश्र 
                                     padmasahyog@gmail.com

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