(1)
स्याह आसमान
बादलों के भार से
झुका - झुका
आशा की बिजलियाँ
चमकती रहीं लगातार
गरजते रहे मेघ पर
बरसे नहीं
तेज आँधी में उड़ गये
आश्वासनों की तरह
मैं देख रही हूँ दूर
समन्दर में
विलीन होती बूँदें और
अपने गाँव के
सूखते तालाब को
समन्दर में समाती ही
जा रही हैं बूँदें और
तालाब सूखता
जा रहा है निरंतर
( 2)
मालती तुम खिलना नहीं
रूप और सुगंध का
दौर नहीं है ये
अब तो
नागफनियों के दिन हैं
कोमलता होगी
लहुलुहान
तार- तार
होगा दामन
दे सको गर दंश तो
बेशक खिलो
अब तो चुभने चुभाने
के दिन हैं
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