रविवार, 13 अप्रैल 2014

जब सुधियों में शेष रह गयी.. (बैसाखी पर गीत)




याद मुझे अब भी आती है,
बैसाखी की वही पुरानी
तेरे-मेरे मधुर प्यार की
अनभूली-सी प्रेम कहानी.

बैसाखी के ढोल बजे थे
मेरे पास अचानक आकर
मेरे निश्छल गीत नेह के
छीन लिए मेरे अधरों से
तेरी कजरारी आँखों ने.
भींच लिया था फिर पलकों को
गीतों में ही छिप जाने को..... याद मुझे अब भी आती है

केसर की हलकी फुहार से
मौसम के इस नए वर्ष में
सतरंगी मेरे स्वप्नों को
जब तुमने अपने आँगन में
सजा लिए थे नेह भाव से
छिपा लिया था अपने मन में
एक रंग में लिथ जाने को..... याद मुझे अब भी आती है

नाच रही थीं फसलें सारी,
झूम रहे थे वन-वन उपवन
मेरे दिल के हर कोने में
जानी-सी तस्वीर प्यार की
छिपा दिया हौले-से आकार
तेरी भोली-सी सूरत ने
जीवन भर के बस जाने को....... याद मुझे अब भी आती है

अब भूली-सी याद रह गयी,
वह जीवन की मधुर बैसाखी
बीत गया सरसों का सावन
रूठ गए जब अपने सारे
अब कैसे आनंद मनाऊं
जब सुधियों में शेष रह गयी
बैसाखी की वही पुरानी
तेरे-मेरे मधुर प्यार की
अनभूली-सी प्रेम कहानी...... याद मुझे अब भी आती है

रविवार, 22 सितंबर 2013

बेटियां (ग़ज़ल)

प्यार का मीठा एहसास हैं बेटियाँ
घर के आँगन का विश्वास हैं बेटियाँ।
वक्त भी थामकर जिनका आँचल चले
ढलते जीवन की हर आस हैं बेटियाँ।
जिनकी झोली है खाली वही जानते,
पतझरों में भी मधुमास हैं बेटियाँ।
रेत सी जिंदगी में दिलों को छुवे 
मखमली नर्म-सी घास हैं बेटियाँ।
तुम  समझो इन्हें दर्द का फ़लसफ़ा,
कृष्ण राधा का महारास हैं बेटियाँ।
उनकी पलकों के आँचल में खुशियाँ बहुत,
जिनके दिल के बहुत पास हैं बेटियाँ
गोद खेलीवो नाज़ों पली, फिर चली,
राम-सीता का वनवास हैं बेटियाँ।
जब विदा हो गईहर नज़र कह गई,
जि़न्दगी भर की इक प्यास हैं बेटियाँ

रविवार, 11 नवंबर 2012

दीपावली पर दो गीत (डॉ हरीश अरोड़ा)


दीप संध्या 



नयनों के उनके में दीपक जलाऊं
यूं इस बार अपनी दिवाली मनाऊं।

सजनी की पलकों का हल्का लजाना
अधरों को दातों के नीचे दबाना
है जीवन का एहसास खुशियाँ मनाना
अधरों पर अंकित में हर गीत गाऊं
यूं इस बार अपनी दिवाली मनाऊं।

स्वप्नों के रंगों में चाहत सजन की
पलकों के आँगन में महके सुमन की
प्यासी है नदिया प्यासे नयन की
मंजुल छवि से मैं आँचल उठाऊं,
यूं इस बार अपनी दिवाली मनाऊं।

नयन उनके मासूम चंचल दुलारे
अनारों के दानों से झिलमिल ओ' प्यारे
के आँचल में जैंसे जड़े हों सितारे
उन्हें मन के मन्दिर में अपने सजाऊं
यूं इस बार अपनी दिवाली मनाऊं।








मधुर दिवाली 



मधुर मधुर मेरे दीपक से
नेह रूप की जली दिवाली
मंजुल मंजुल सौम्य किरण बन
पलकों के तल पली दिवाली।

कंचन कंचन जल से भीगी 
सजी हुई दीपों की पांती
जीवन में खुशियाँ भर लाई 
उसके अमर रूप की बाती
झनक झनक कोमल पग धर तल 
झूम झूम कर चली दिवाली। 

मधुर सुधा रस से है छलकी 
उसके निर्झर तन की काया 
अधरों के कम्पन से लिपटी
प्रेम सिक्त दीपक की छाया
मन में हंसती ओ' इठलाती 
मेरा मन छल चली दिवाली। 



डॉ हरीश अरोड़ा

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drharisharora@gmail.com

शनिवार, 3 नवंबर 2012

डॉ बच्चन पाठक 'सलिल' की दो कवितायेँ





वेदना 




कैक्टसों की वे सुरक्षा कर रहे 
जूही सुकोमल आज है पछता रही ।
अब न देती मदिर सौरभ रात की रानी यहाँ 
गंध जहरीली हवा में बिन बुलाये आ रही ।
पी चुकी पिछली सदी है अर्थवत्ता शब्द की 
बेतुके शब्दों की सेना आज कविता पा रही ।
वन्दिनी कविता बनी है आज खेमों में 
है कला विकला बनी आज वह चिल्ला रही ।
मत करो कविता प्रदूषित अन्यथा पछताओगे 
सयंमित हो भारती सबको यही बतला रही ।

यात्री से 
     
इस सफ़र से यों नहीं घबराइए 
सफ़र लम्बा मुस्कुराते जाइए ।
एक दिन गंतव्य भी मिल जायेगा 
हर कदम आगे बढाते जाइए  ।
आपके भी बाद जाएँ  पर्यटक
राह के कंटक हटाते जाइए  ।
सुरा महँगी और जहरीली हुई 
आँख से मदिरा पिलाते जाइए ।
राह में बदबू प्रदुषण से भरी 
प्यार का सौरभ बहाते जाइए ।
ध्यान रखें शत्रु कोई न बनें 
मित्रता पर आजमाते जाइए ।
'सलिल' सब साधन यहाँ पाथेय है 
हमसफ़र में कुछ लुटाते जाइए ।





 डॉ बच्चन पाठक 'सलिल


शुक्रवार, 2 नवंबर 2012

करवा चौथ (सोनाली मिश्र की एक कविता)





“आज है तुम्हारा दिन ये प्रिये,
क्या लाऊँ तुम्हारे लिए प्रिये,”
वे बोले मैं शरमाई, 
फिर मन ही मन मुस्काई,
मैंने कहा मुझको नहीं कुछ चाहिए,
बस आप की सलामती चाहिए,
यूं ही रहो बस आप मेरे साथ,”
वे बोले “वाह क्या है बात”
मैं बोली “बस अब ज्यादा मुंह न खुलवाइए,
चलिए अब सीधे ऑफिस जाइए,
वरना दिल की बात जुबां पर आ जाएगी,
फिर आपको बहुत ही तड़पाएगी,
कि सोने का अंडा देने वाली मुर्गी को
एकदम ही नहीं काटा जाता है,
उससे तो धीरे धीरे ही सोने का,
अंडा पाया जाता है,
अरे भाई मुर्गे को हलाल करने 
में ही मज़ा आता है.
एक बार आपसे मांग कर मैं 
क्यों खुद को बदनाम करूं?
जन्म जन्मांतर के लिए 
क्यों न तुम को ही मांग लूं,
जिससे इस जन्म की मेहनत 
अगले जन्म में भी काम आए,
और मेरे बाकी के जन्म में,
मुझको थोडा तो आराम आए,
तो प्रिय, मुझको आप से 
और नहीं कुछ चाहिए,
बस जन्म जन्मांतर तक साथ का,
एक छोटा सा वादा चाहिए.
एक छोटा सा वादा चाहिए.”  


कवयित्री सोनाली मिश्रा

https://www.facebook.com/sonali.misra1


सोमवार, 15 अक्तूबर 2012

सूर्यकांत त्रिपाठी निराला की कविता 'राम की शक्ति पूजा'.





आज सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला' जी जी की पुण्य तिथि (February 21, 1896 – October 15,
1961) है जो कि हिन्दी कविता के छायावादी युग के चार प्रमुख स्तंभों में से एक माने जाते हैं अपने समकालीन अन्य कवियों से अलग उन्होंने कविता में कल्पना का सहारा बहुत कम लिया है और यथार्थ को प्रमुखता से चित्रित किया है। वे हिन्दी में मुक्तछंद के प्रवर्तक भी माने जाते हैं।उनका जन्म रविवार को हुआ था इसलिए सुर्जकुमार कहलाए। उनके पिता पंण्डित रामसहाय तिवारी उन्नाव (बैसवाड़ा) के रहने वाले थे और महिषादल में सिपाही की नौकरी करते थे। वे मूल रूप से उत्तर प्रदेश के उन्नाव जिले का गढ़कोला नामक गाँव के निवासी थे। सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला' की पहली नियुक्ति महिषादल राज्य में ही हुई।उन्होंने कहानियाँ उपन्यास और निबंध भी लिखे हैं किन्तु उनकी ख्याति विशेषरुप से कविता के कारण ही है। यहाँ प्रस्तुत है उनकी सर्वश्रेष्ठ कविता 'राम की शक्ति पूजा'.

रवि हुआ अस्त; ज्योति के पत्र पर लिखा अमर
रह गया राम-रावण का अपराजेय समर
आज का तीक्ष्ण-शर-विधृत-क्षिप्र-कर, वेग-प्रखर
शतशेल सम्वरणशील, नील नभ-गर्जित-स्वर,
प्रतिपल परिवर्तित व्यूह - भेद-कौशल-समूह
राक्षस-विरुईद्ध-प्रत्यूह, - क्रुद्ध-कपि-विषम-हूह,
विच्छुरित-वहिनई-राजीवनयन-हत-लक्ष्य-बाण
लोहित लोचन रावण मदमोचन-महीयान,
राघव-लाघव-रावण-वारण-गत-युग्म प्रहर,
उद्धत-लंकापति-मर्दित-कपि-दल-बल-विस्तरई
अनिमेष राम - विश्वजिद्दिव्य-शर-भंग-भाव,
विद्धांग - बद्ध - कोदण्ड मुष्टि - खर-रुईधिर-स्त्राव,
रावण-प्रहार-दुर्वार विकल-वानर-दल-बल,
मूर्छित - सुग्रीवांगद - भीषण गवाक्ष -गय- नल,
वारित-सौमित्र-भल्लपति-अगणित-मल्ल-रोधई
गर्जित-प्रलयाब्धि-क्षुब्ध-हनुमत्-केवल-प्रबोधई
उद्गीरित-वहिईन-भीम-पर्वत-कपि-चतु:प्रहरई-
जानकी-भीरू-उर-आशा-भर, रावण सम्वर।
लौटे युग दल। राक्षस-पद-तल पृथ्वी टलमल,
बिंध महोल्लास से बार-बार आकाश विकल।
वानर-वाहिनी खिन्न, लख निज-पति-चरण-चिह्न
चल रही शिविर की ओर स्थविर-दल ज्यों विभिन्न।

प्रशमित हैं वातावरण, नमित-मुख सान्ध्य कमल
लक्ष्मण चिन्ता-पल, पीछे वानर-वीर सकल;
रघुनायक आगे अवनी पर नवनीत-चरण,
श्लथ धनु-गुण है, कटि-बन्ध त्रस्त-तूणीर-धरण,
दृढ़ जटा-मुकुट हो विपर्यस्त प्रतिलट से खुल
फैला पृष्ठ पर, बाहुओंई पर, वृक्ष पर, विपुल
उतरा ज्यों दुर्गम पर्वत पर नैशान्धकार;
चमकती दूर ताराएँ त्यों हों कहीं पार।
आये सब शिविर, सानु पर पर्वत के, मन्थर,
सुग्रीव, विभीषण, जाम्बवान आदिक वानर,
सेनापति दल-विशेष के, अंगद, हनुईमान,
नल-नील-गवाक्ष, प्रात के रण का समाधान
करने के लिए, फेर वानर-दल आश्रम-स्थल।
बैठे रघुकुल-मणि श्वेत-शिला पर, निर्मल जल
ले आये कर-पद-क्षालनार्थ पटु हनूमान,
अन्य वीर सर के गये तीर सन्ध्या-विधान-
वन्दना ईश की करने को लौटे सत्वर;
सब घेर राम को बैठे आज्ञा को तत्पर;
पीछे लक्ष्मण, सामने विभीषण भल्लधीर, -
सुग्रीव, प्रान्त पर पद-पद्य के महावीर,
यूधपति अन्य जो, यथास्थान हो निर्निमेष
देखते राम का जित-सरोज-मुख-श्याम देश।
है अमानिशा, उगलता गगन घन-अन्धकार;
खो रहा दिशा का ज्ञान, स्तब्ध है पवन-चार;
अप्रतिहत गरज रहा पीछे अम्बुधि विशाल;
भूधर ज्यों ध्यान-मग्न; केवल जलती मशाल।
स्थिर राघवेन्द्र को हिला रहा फिर-फिर संशय
रह-रह उठता जग जीवन में रावण जय भय;
जो नहीं हुआ है आज तक हृदय रिपुदम्य-श्रान्त,
एक भी, अयुत-लक्ष में रहा जो दुराक्रान्त,
कल लड़ने को हो रहा विकल वह बार-ईबार,
असमर्थ मानता मन उद्यत हो हार हार।
ऐसे क्षण अन्धकार घन में जैसे विद्युत
जागी पृथ्वी-तनय-कुमारिका-छवि अच्युत
देखते हुए निष्पलक, याद आया उपवन
विदेह का, - प्रथम स्नेह का लतान्तराल मिलन
नयनों का- नयनों से गोपन-प्रिय सम्भाषण
पलकों का नव पलकों पर प्रथमोत्थान पतन,
काँपते हुए किसलय, - झरते पराग समुदय, -
गाते खग नव-जीवन-परिचय, तरू मलय-वलय,
ज्योति: प्रपात स्वर्गीय, - ज्ञात छवि प्रथम स्वीय, -
जानकी-नयन-कमनीय प्रथम कम्पन तुरीय।
सिहरा तन, क्षण भर भूला मन, लहरा समस्त,
हर धनुर्भंग को पुनर्वार ज्यों उठा हस्त,
फूटी स्मिति सीता-ध्यान-लीन राम के अधर,
फिर विश्व-विजय-भावना हृदय में आयी भर,
वे आये याद दिव्य शर अगणित मन्त्रपूत, -
फड़का पर नभ को उड़े सकल ज्यों देवदूत,
देखते राम, जल रहे शलभ ज्यों रजनीचर,
ताड़का, सुबाहु, बिराध, शिरस्त्रय, दूपण, खर;
फिर देखी भीमा-मूर्ति आज रण देवी जो
आच्छादित किए हुए सम्मुख समग्र नभ को,
ज्योतिर्मय अस्त्र सकल बुझ-बुझकर हुए क्षीण,
पा महानिलय उस तन में क्षण में हुए लीन,
लख शंकाकुल हो गए अतुल-बल शेष-शयन;
खिंच गए दृगों में सीता के राममय नयन;
फिर सुना-हँस रहा अट्टाहास रावण खलखल,
भावित नयनों से सजल गिरे दो मुक्ता-दल।
बैठे मारुति देखते राम-चरणारविन्द-
युग 'अस्ति-नास्ति' के एक गुण-गण-अनिन्द्य,
साधना-मध्य भी साम्य-वामा-कर दक्षिण-पद,
दक्षिण करतल पर वाम चरण, कपिवर, गद्गद्
पा सत्य, सच्चिदानन्द रूप, विश्राम धाम,
जपते सभक्ति अजपा विभक्ति हो राम-नाम।
युग चरणों पर आ पड़े अस्तु वे अश्रु-युगल,
देखा कवि ने, चमके नभ में ज्यों तारादल।
ये नहीं चरण राम के, बने श्यामा के शुभ, -
सोहते मध्य में हीरक युग या दो कौस्तुभ;
टूटा वह तार ध्यान का, स्थिर मन हुआ विकल
सन्दिग्ध भाव की उठी दृष्टि, देखा अविकल
बैठे वे वहीं कमल लोचन, पर सजल नयन,
व्याकुल-व्याकुल कुछ चिर प्रफुल्ल मुख निश्चेतन।
"ये अश्रु राम के" आते ही मन में विचार,
उद्वेग हो उठा शक्ति-खोल सागर अपार,
हो श्वसित पवन उच्छवास पिता पक्ष से तुमुल
एकत्र वक्ष पर बहा वाष्प को उड़ा अतुल,
शत पूर्णावर्त, तरंग-भंग, उठते पहाड़,
जल-राशि राशि-जल पर चढ़ता खाता पछाह,
तोड़ता बन्ध-प्रतिसन्ध धरा हो स्फीत -वक्ष
दिग्विजय-अर्थ प्रतिपल समर्थ बढ़ता समक्ष,
शत-वायु-वेग-बल, डूबा अतल में देश-भाव,
जल-राशि विपुल मध मिला अनिल में महाराव
वज्रांग तेजघन बना पवन को, महाकाश
पहुँचा, एकादश रूद्र क्षुब्ध कर अट्टहास।

रावण-महिमा श्यामा विभावरी, अन्धकार,
यह रूद्र राम-पूजन-प्रताप तेज:प्रसार;
इस ओर शक्ति शिव की जो दशस्कन्ध-पूजित,
उस ओर रूद्रवंदन जो रघुनन्दन-कूजित;
करने को ग्रस्त समस्त व्योम कपि बढ़ा अटल,
लख महानाश शिव अचल, हुए क्षण भर चंचल;
श्यामा के पद तल भार धरण हर मन्द्रस्वर
बोले - "सम्वरो, देवि, निज तेज, नहीं वानर
यह, नहीं हुआ शृंगार-युग्म-गत, महावीर
अर्चना राम की मूर्तिमान अक्षय-शरीर,
चिर ब्रह्मचर्य-रत ये एकादश रूद्र, धन्य,
मर्यादा-पुरुषोत्तम के सर्वोत्तम, अनन्य
लीला-सहचर, दिव्यभावधर, इन पर प्रहार
करने पर होगी देवि, तुम्हारी विषम हार;
विद्या का ले आश्रय इस मन को दो प्रबोध,
झुक जाएगा कपि, निश्चय होगा दूर रोध।"
कह हुए मौन शिव; पतन-तनय में भर विस्मय
सहसा नभ से अंजना-रूप का हुआ उदय

बोली माता - "तुमने रवि को जब लिया निगल
तब नहीं बोध था तुम्हें; रहे बालक केवल,
यह वही भाव कर रहा तुम्हें व्याकुल रह-रह
यह लज्जा की है बात कि माँ रहती सह-सह;
यह महाकाश, है जहाँ वास शिव का निर्मल-
पूजते जिन्हें श्रीराम उसे ग्रसने को चल
क्या नहीं कर रहे तुम अनर्थ? सोचो मन में;
क्या दी आज्ञा ऐसी कुछ श्री रघुनन्दन ने?
तुम सेवक हो, छोड़कर धर्म कर रहे कार्य -
क्या असम्भाव्य हो यह राघव के लिए धार्य?"
कपि हुए नम्र, क्षण में माता-छवि हुई लीन,
उतरे धीरे-धीरे गह प्रभुपद हुए दीन।

राम का विषण्णानन देखते हुए कुछ क्षण;
"हे सखा" विभीषण बोले "आज प्रसन्न-वदन
वह नहीं देखकर जिसे समग्र वीर-वानर-
भल्लूक विगत-श्रम हो पाते जीवन निर्जर;
रघुवीर, तीर सब वही तूण में हैं रक्षित,
है वही पक्ष, रण-कुशल-हस्त, बल वही अमित;
हैं वही सुमित्रानन्दन मेघनाद-जित् रण,
हैं वही भल्लपति, वानरेन्द्र सुग्रीव प्रमन,
ताराकुमार भी वही महाबल श्वेत धीर,
अप्रतिभट वही एक अर्बुद-सम महावीर
हैं वही दक्ष सेनानायक है वही समर,
फिर कैसे असमय हुआ उदय भाव-प्रहर!
रघुकुल-गौरव लघु हुए जा रहे तुम इस क्षण,
तुम फेर रहे हो पीठ, हो रहा हो जब जय रण

कितना श्रम हुआ व्यर्थ, आया जब मिलन-समय,
तुम खींच रहे हो हस्त जानकी से निर्दय!
रावण? रावण - लम्पट, खाल कल्मय-गताचार,
जिसने हित कहते किया मुझे पाद-प्रहार,
बैठा उपवन में देगा दुख सीता को फिर,
कहता रण की जय-कथा पारिषद-दल से घिर,
सुनता वसन्त में उपवन में कल-कूजित-पिक
मैं बना किन्तु लंकापति, धिक्, राघव, धिक्-धिक्?'
सब सभा रही निस्तब्ध; राम के स्मित नयन
छोड़ते हुए शीतल प्रकाश देखते विमन,
जैसे ओजस्वी शब्दों का जो था प्रभाव
उससे न इन्हें कुछ चाव, न हो कोई दुराव,
ज्यों ही वे शब्दमात्र - मैत्री की समानुरक्ति,
पर जहाँ गहन भाव के ग्रहण की नहीं शक्ति।

कुछ क्षण तक रहकर मौन सहज निज कोमल स्वर,
बोले रघुमणि - "मित्रवर, विजया होगी न, समर
यह नहीं रहा नर-वानर का राक्षस से रण,
उतरी पा महाशक्ति रावण से आमन्त्रण;
अन्याय जिधर, हैं उधर शक्ति।" कहते छल-छल
हो गये नयन, कुछ बूँद पुन: ढलके दृगजल,
रुक गया कण्ठ, चमक लक्ष्मण तेज: प्रचण्ड
धँस गया धरा में कपि गह-युग-पद, मसक दण्ड
स्थिर जाम्बवान, - समझते हुए ज्यों सकल भाव,
व्याकुल सुग्रीव, - हुआ उर में ज्यों विषम घाव,
निश्चित-सा करते हुए विभीषण कार्यक्रम
मौन में रहा यों स्पन्दित वातावरण विषम।

निज सहज रूप में संपत हो जानकी-प्राण
बोले - "आया न समझ में यह दैवी विधान;
रावण, अधर्मरत भी, अपना, मैं हुआ अपर, -
यह रहा, शक्ति का खेल समर, शंकर, शंकर!
करता मैं योजित बार-बार शर-निकर निशित,
हो सकती जिनसे यह संसृति सम्पूर्ण विजित,
जो तेज:पुंज, सृष्टि की रक्षा का विचार-
हैं जिसमें निहित पतन घातक संस्कृति अपार -

शत-शुद्धि-बोध - सूक्ष्मतिसूक्ष्म मन का विवेक,
जिनमें है क्षात्र-धर्म का घृत पूर्णाभिषेक,
जो हुए प्रजापतियों से संयम से रक्षित,
वे शर हो गए आज रण में श्रीहत, खण्डित!
देखा है महाशक्ति रावण को लिये अंक,
लांछन को ले जैसे शशांक नभ में अशंक;
हत मन्त्र-पूत शर सम्वृत करतीं बार-बार,
निष्फल होते लक्ष्य पर क्षिप्र वार पर वार।
विचलित लख कपिदल क्रुद्ध, युद्ध को मैं ज्यों-ज्यों,
झक-झक झलकती वहिन वामा के दृग त्यों-त्यों;
पश्चात्, देखने लगीं मुझे बँध गए हस्त,
फिर खिंचा न धनु, मुक्त ज्यों बँधा मैं, हुआ त्रस्त!"

कह हुए भानु-कुल-भूषण वहाँ मौन क्षण भर,
बोले विश्वस्त कण्ठ से जाम्बवान, "रघुवर,
विचलित होने का नहीं देखता मैं कारण,
हे पुरुषसिंह, तुम भी यह शक्ति करो धारण,
आराधन का दृढ़ आराधन से दो उत्तर,

तुम वरो विजय संयत प्राणों से प्राणों पर,
रावण अशुद्ध होकर भी यदि कर सका त्रस्त
तो निश्चय तुम हो सिद्ध करोगे उसे ध्वस्त;
शक्ति की करे मौलिक कल्पना; करो पूजन,
छोड़ दो समर जब तक न सिद्ध हो, रघुनन्दन!
तब तक लक्ष्मण हैं महावाहिनी के नायक
मध्य मार्ग में अंगद, दक्षिण-श्वेत सहायक,
मैं, भल्ल सैन्य; हैं वाम-पार्श्व में हनुमान,
नल, नील और छोटे कपिगण - उनके प्रधान;
सुग्रीव, विभीषण, अन्य यूथपति यथासमय
आयेंगे रक्षा हेतु जहाँ भी होगा भय।"

खिल गयी सभा। "उत्तम निश्चय यह, भल्लनाथ!"
कह दिया ऋक्ष को मान राम ने झुका माथ।
हो गए ध्यान में लीन पुन: करते विचार,
देखते सकल - तन पुलकित होता बार-बार।

कुछ समय अनन्तर इन्दीवर-निदित लोचन
खुल गए, रहा निष्पलक भाव में मज्जित मन,
बोले आवेग-रहित स्वर में विश्वास-स्थित -
"मात:, दशभुजा, विश्व-ज्योति; मैं हूँ आश्रित;
हो विद्ध शक्ति से है महिषासुर खल मर्दित;
जनरंजन-चरण-कमल-तल, धन्य सिंह गर्जित!
यह, यह मेरा प्रतीक मात: समझा इंगित;
मैं सिंह, इसी भाव से करूँगा अभिनन्दित।"

कुछ समय तक स्तब्ध हो रहे राम छवि में निमग्न,
फिर खोले पलक-कमल-ज्योतिर्दल ध्यान-लग्न;

हैं देख रहे मन्त्री, सेनापति, वीरासन
बैठे उमड़ते हुए, राघव का स्मित आनन।
बोले भावस्थ चन्द्र-मुख निन्दित रामचन्द्र
प्राणों में पावन कम्पन भर स्वर-मेघमन्द्र -
"देखो, बन्धुवर, सामने स्थिर जो वह भूधर
शोभित शत-हरित-गुल्म-तृण से श्यामल सुन्दर,
पार्वती कल्पना हैं इसकी मकरन्द-विन्दु;
गरजता वरण-प्रान्त पर सिंह वह, नहीं सिन्धु,

दशदिक समस्त हैं हस्त, और देखो ऊपर,
अम्बर में हुए दिगम्बर अर्चित शशि-शेखर;

लख महाभाव-मंगल पद-तल धँस रहा गर्व -
मानव के मन का असुर मन्द हो रहा खर्व।"

फिर मधुर दृष्टि से प्रिय कपि को खींचते हुए
बोले प्रियतर स्वर में अन्तर सींचते हुए -
"चाहिए हमें एक सौ आठ, कपि, इन्दीवर,
कम-से-कम, अधिक और हों, अधिक और सुन्दर,
जाओ देवीदह, उष:काल होते सत्वर
तोड़ो; लाओ वे कमल, लौटकर लड़ो समर।"
अवगत हो जाम्बवान से पथ, दूरत्व, स्थान,
प्रभु-पद रज सिर धर चले हर्ष भर हनूमान।
राघव ने विदा किया सबको जानकर समय,
सब चले सदय राम की सोचते हुए विजय।
निशि हुई विगत : नभ के ललाट पर प्रथमकिरण
फूटी रघुनन्दन के दृग महिमा-ज्योति-हिरण;

हैं नहीं शरासन आज हस्त-तूणीर स्कन्ध
वह नहीं सोहता निबिड़-जटा-दृढ़ मुकुट-वन्ध;
सुन पड़ता सिंहनाद रण-कोलाहल अपार,
उमड़ता नहीं मन, स्तब्ध सुधी हैं ध्यान धार;
पूजोपरान्त जपते दुर्गा, दशभुजा नाम,
मन करते मनन नामों के गुणग्राम;
बीता वह दिवस, हुआ मन स्थिर इष्ट के चरण
गहन से गहनतर होने लगा समाराधन।
क्रम-क्रम से हुए पार राघव के पंच दिवस,

चक्र से चक्र मन बढ़ता गया ऊर्ध्व निरलस,
कर-जप पूरा कर एक चढ़ाते इन्दीवर
निज पुरश्चरण इस भाँति रहे हैं पूरा कर।
चढ़ षष्ठ दिवस आज्ञा पर हुआ समासित मन,
प्रतिजप से खिंच-खिंच होने लगा महाकर्षण,
संचित त्रिकुटी पर ध्यान द्विदल देवी-पद पर,
जप के स्वर लगा काँपने थर-थर-थर अम्बर;
दो दिन नि:स्पन्द एक आसन पर रहे राम,
अर्पित करते इन्दीवर जपते हुए नाम।
आठवाँ दिवस मन ध्यान-युक्त चढ़ता ऊपर
कर गया अतिक्रम ब्रह्मा-हरि-शंकर का स्तर,
हो गया विजित ब्रह्माण्ड पूर्ण, देवता स्तब्ध;
हो गये दग्ध जीवन के तप के समारब्ध;
रह गया एक इन्दीवर, मन देखता पार
प्राय: करने को हुआ दुर्ग जो सहस्त्रार,
द्विप्रहर, रात्रि, साकार हुई दुर्गा छिपकर
हँस उठा ले गई पूजा का प्रिय इन्दीवर।

यह अन्तिम जप, ध्यान में देखते चरण-युगल
राम ने बढ़ाया कर लेने को नीलकमल;
कुछ लगा न हाथ, हुआ सहसा स्थिर मन चंचल;
ध्यान की भूमि से उतरे, खोले पलक विमल;
देखा, वहा रिक्त स्थान, यह जप का पूर्ण समय
आसन छोड़ा असिद्धि, भर गए नयन-द्वय; -
"धिक् जीवन को जो पाता ही आया है विरोध,
धिक् साधन जिसके लिए सदा ही किया शोध
जानकी! हाय उद्धार प्रिया का हो न सका;
वह एक और मन रहा राम का जो न थका;
जो नहीं जानता दैन्य, नहीं जानता विनय,
कर गया भेद वह मायावरण प्राप्त कर जय,

बुद्धि के दुर्ग पहुँचा विद्युत-गति हतचेतन
राम में जगी स्मृति हुए सजग पा भाव प्रमन।
"यह है उपाय", कह उठे राम ज्यों मन्द्रित घन-
"कहती थीं माता मुझे सदा राजीव-नयन।
दो नील कमल हैं शेष अभी, यह पुरश्चरण
पूरा करता हूँ देकर मात एक नयन।"
कहकर देखा तूणीर ब्रह्मशर रहा झलक,
ले लिया हस्त लक-लक करता वह महाफलक;
ले अस्त्र थाम कर, दक्षिण कर दक्षिण लोचन
ले अर्पित करने को उद्यत हो गये सुमन
जिस क्षण बँध गया वेधने को दृग दृढ़ निश्चय,
काँपा ब्रह्माण्ड, हुआ देवी का त्वरित उदय -

"साधु, साधु, साधक धीर, धर्म-धन-धान्य राम!"
कह, लिया भगवती ने राघव का हस्त थाम
देखा राम ने, सामने श्री दुर्गा, भास्कर
वामपद असुर स्कन्ध पर, रहा दक्षिण हरि पर,
ज्योतिर्मय रूप, हस्त दश विविध-अस्त्र सज्जित,
मन्द स्मित मुख, लख हुई विश्व को श्री लज्जित
हैं दक्षिण में लक्ष्मी, सरस्वती वाम भाग,
दक्षिण गणेश, कार्तिक बायें रण-रंग-राग,
मस्तक पर शंकर! पदपद्मों पर श्रद्धाभर
श्री राघव हुए प्रणत मन्द-स्वर-वन्दन कर।

"होगी जय, होगी जय, हे पुरूषोत्तम नवीन।"
कह महाशक्ति राम के बदन में हुई-लीन।





प्रतीक्षा (कहानी)



    दोपहर के दो बज रहे थे ,सीमा ने उचटती सी नजर घड़ी पर डाली, अभी चार बजे उसे कोर्ट जाना है.  एक महत्वपूर्ण  केस पर बहस के लिए और अभी तो  उसे तैयारभी होना है....वह न जाने कब तक सोती रही थी. आँखों में आंसू भी सूख चुके थे. दर्द की परछाइयां शायद नींद के आगोश में जाकर मन की गहराईयों में कहीं विलीन हो चुकी थीं. ...वह धीरे से उठी.. बाथरूम में जाकर ठन्डे पानी से हाथ ,पाँव, चेहरा धोया और धो पोंछ कर बहा दिया उदासी, दर्द की शेष रही लकीरों को. ..पानी की बूंदों में घुल गए मन के आंसू. मेक अप की हलकी परतों में चेहरे  और आँखों की सूजन को छिपाकर  सादी साड़ी में सुसज्जित मिसेज सीमा भारद्वाज ,एक कुशल अधिवक्ता, नगर की प्रसिद्द लेखिका, समाजसेविका चल पड़ी अपने मंजिल की सीढियां तय करने. ...जिन्दगी का यह रूप उसका निजी था. ..एक भोगा हुआ यथार्थ.. उसकी कविताओं की तरह काल्पनिक नहीं.सच्चाई के धरातल पर खडी आज सीमा भारद्वाज लड़ रही थी ..,जिन्दगी के अनेक मोर्चों पर. --एक साथ -,पति,बच्चे,गृहस्थी, उनसे जुड़ी परेशानियाँ, सामाजिक जिम्मेदारियां, ..सभी कुछ.!
    आज सुबह से ही वातावरण तनावग्रस्त था. पति सौरभ नाराज थे और तनाव की लकीरें उनके चेहरें पर साफ़ साफ़ नजर आ रही थीं. ..कारण भी स्पष्ट नहीं था...अलमारी की सफाई न होने, या कप टूटने जैसी छोटी छोटी बातों पर भी उनका गुस्सा भड़क सकता था, ..यह तो वह जानती थी, पर इस हद तक?..वह अनुमान नहीं लगा सकी थी. ..बेटियां अपना होमवर्क कर रही थीं, और वह किचन में व्यस्त थी. ..अचानक आई विपत्ति की तरह उनका चीखना चिल्लाना सुन वह बदहवास हो दौड़ी थी, आलमारी में बिखरी किताबें उसका मुंह चिढ़ा रही थीं. और सौरभ जोर जोर से बस डांटे जा रहे  थे. वह उन्हें समझाने का प्रयत्न करने लगी,अपनी सफाई में अभी कुछ कहने को मुंह खोला ही था क़ि लहराती हुई एक किताब उसके पांवों से टकराई, ..और फिर एक जोरदार थप्पड़.. 
बातों के शूल अपमान की हदें पार कर चुके थे, वह बस चुपचाप रोती रही, और रोते रोते ही बिस्तर पर गिरकर सो गयी. किसी ने उसे जगाया भी नहीं. ... बेटियां स्कूल जा चुकी थीं...सौरभ अपने कमरे में बैठ कर कोई किताब पढ़ रहे थे. उठी तो सब कुछ शांत था, ...एक तूफान के गुजर जाने के बाद की शांति .उसने राहत की सांस ली.उसे अपने अपमान और दर्द की बात याद नहीं आई, बल्कि -''घर में शांति है, यह बात उसे सुकून देने वाली लगी. ...शायद हर आम परिवार में घुटती.. जूझती हर नारी ऐसा ही सोचती है...वह इस अन्याय के खिलाफ आवाज भी नहीं उठा सकती या यों कहें क़ि आवाज उठाना भी नहीं चाहती, .......नारी विमर्श और नारी उत्पीडन के के लिए लिखने वाली ..उनके हक़ के लिए सामाजिक संस्थाओं के साथ आवाज मिलाती सीमा भारद्वाज अपने घर के दायरों में कैद ...कितनी विवश.. कितनी निरुपाय थी, ..यह बात सीमा के अतिरिक्त कौन  समझ सकता था?..पर वह कायर नहीं थी. वह एक हद तक खुद को स्वार्थी ही मानती थी. घर की शांति के लिए, बच्चों के भविष्य के लिए, खुद सौरभ के स्वास्थ्य के लिए, और दूसरों के सामने खुद को ,परिवार को लज्जित होने से बचाने के लिए.वह चुपचाप वर्षों से यह सब सहती आ रही थी. 
सौरभ के पिता नहीं थे, माँ बचपन में ही चल बसी थी. सौतेली माँ ने पाला था, पर उस पालन पोषण की कीमत उसके पिता की सम्पत्ति पर अपने सम्पूर्ण अधिकार के रूप में पाना चाहती थीं. और यह उन्होंने कर दिखाया धोखे से कागजों पर सौरभ के हस्ताक्षर लेकर. पर पिता की छोडी जमीन का एक बड़ा हिस्सा सौरभ के बेटे के नाम था, जो उनकी आँखों में खटकता रहता था. वह जब तब सौरभ को फोन कर ,उससे बहस करके ,अपशब्दों से , उसको अपमानित करती रहती थीं.बस वे तनाव ग्रस्त हो अपना गुस्सा कभी उस पर ,कभी बच्चों पर निकाला करते थे. 
 
इस आपाधापी में उसे बेहद प्यार करने वाला उसका अपना सौरभ कहीं खो गया था. प्रेम की बेल ही सुख़ गयी हो जैसे.. वह जितना समझाती ,वह उतना ही भड़क उठते. फलस्वरूप उसने अपना सब कुछ समय पर छोड़ दिया था. वह जान रही थी क़ि आज भी कुछ ऐसा ही हुआ होगा. उसने गहरी सांस ली. ....कार ड्राइव करते हुए सीमा अपनी सोच में इतनी डूब गयी थी क़ि सामने से आते एक ट्रक से टक्कर होते होते बची.वह काँप उठी..अगर मर जाती तो? ....अच्छा ही होता न ,..सब खटरागों से मुक्ति मिल जाती. ..अपनी इस क्षणिक कायरता पर मन ही मन मुस्करा उठी सीमा. मौत भी उसके भाग्य क़ि तरह उससे कतरा कर निकल गयी. ....कोर्ट आ गया था, जाने -अनजाने कई चेहरे नजर आ रहे थे. बाहर खडी गाड़ियों की कतार में गाड़ी पार्क कर वह कक्ष में जैसे ही घुसी, उसके मित्र सामने ही मिल गए थे. सीनियर से बातें करती हुई वह कोर्ट के अन्दर चली गई थी. आज बहस के दौरान सीमा नारी प्रतारणा के विरोध में जम कर बोली थी, शायद उसकी अपनी पीड़ा ,बेबसी एक माध्यम पाकर मुखरित हो उठी थी. सभी आज एक नई सीमा भारद्वाज को देख रहे थे. कोर्ट से लौटी तो तन मन थक कर चूर थे. एक कप चाय पीकर वह पलंग पर लेती ही थी क़ि 'कोमल जी' का फोन आ गया -''मिलन संघ में एक कवि गोष्ठी है, आजाइए, कब से फोन लगा रहा हूँ''. ---''मै सोचूंगी कोमल भाई, अभी तो बहुत थकी हुई हूँ'', उसने आँखे बन्द कर लीं.
बच्चे स्कूल से आ गए थे. सीमा का मन आज बहुत ही आकुल व्याकुल था. मन की बोझिलता को कम करने के लिए उसने कवि गोष्ठी में शामिल होने का मन बना लिया.बच्चों और सौरभ के लिए सब्जी बना कर और आटा भी गुंध कर फ्रिजमे रखदिया, शाम को लौट कर रोटियां बना लेगी. , थोड़ी देर बाद कवि गोष्ठी के लिए तैयार होकर सौरभ को चाय दे ,,शाम को लौटने की बात बता कर बाहर आते समय उसने सुना -''देर होने पर फोन कर देना,'' सौरभ कह रहे थे. यह सुलह की औपचरिकता थी.बच्चों को खाना खा लेने की हिदायत दे वह बाहर आ गयी. 
कवि गोष्ठी में मंच सञ्चालन करते समय ..पढी जाती कविताओं पर दाद देती, हर भावपूर्ण पंक्ति पर अपनी टिप्पणी देती, ..श्रोताओं की तालियों में गुम होती ...अपने मन के हाहाकार को सीमा साफ़ साफ़ सुन प् रही थी.तभी कोमल जी ने उसका नाम पुकारा--''अब मै आमंत्रित करता हूँ -अपने नगर की शान ,स्वयं सरस्वती स्वरूपा सीमा भारद्वाज को ''...वह शांत मनसे डायरी के पृष्ठ पलटने लगी. सोचा तो था क़ि प्रकृति प्रेम या पर्यावरण पर कोई सुनाएगी परभींगी आँखों ने यह कौन सी कविता ढूंढ़ निकली थी?...कविता के शब्द गूंज रहे थे''....जिन्दगी और सच्चाई के बीच ,...एक लम्बा फासला तय करती है,..ओरत की जिन्दगी ...रोटियां बनाते.. आँगन बुहारते.. क्या एक पल के लिए भी ..किसी ने सोचा?..कब टूटीं उसके सपनो की साँसें?..कब गिरे संवेदनाओं के ताजमहल?''
कविता के शब्द आँखों से आंसू बन पिघल रहे थे, ''सीमा जी, आप ठीक तो हैं न?''अनीता सिंह ने उसकी और पानी का गिलास बढाया था. ''हाँ, मै ठीक हूँ''... पानी पीकर वह कुछ स्वस्थ हो गयी थी. 
....
जिन्दगी कुछ और आगे बढ़ गयी थी.. सौरभ अब और भी अधिक क्रोधी हो गए थे. और जिम्मेदारियों से दूर भागने लगे थे. बेटे की शिक्षा, बेटियों को पढ़ना और उनके विवाह आदि सारे कार्य सीमा नेअकेले ही किये थे. .....पर वर्षों बाद इन डूबती उतराती साँसों के बीच ...मन में पल रही एक अंतहीन प्रतीक्षा थी क़ि ...आज न सही कल.. कभी उसका साथी लौट आएगा उसके पास ...उसे भी तो मेरे साथ की जरुरत होगी, ''...जीवन की अनंत यात्रा पर वह अकेली नहीं होगी, उसे ले जाने वाले चार हाथों में उसका चिर साथी भी शामिल होगा. ...अपने प्यार की पालकी उठाये...............बस प्रतीक्षा ही तो थी ..एक अंतहीन प्रतीक्षा. 




पद्मा मिश्रा 
मेरी कहानियां जिन्दगी के आसपास साँसें लेती हैं.
जीवन के सुख,दुःख, हर्ष विषाद प्रेम की सुन्दरतम अनुभूतियों  का दर्पण बन
समाज को सच दिखाना ही उनकी सार्थक अभिव्यक्ति है
भटके हुए कदमों को उनके सपनों की राह तक पहुंचाना और संवेदना 
के एक नए क्षितिज का निर्माण करना मेरी कहानियों की सृजन यात्रा का पाथेय है.