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हर्षवर्धन आर्य की कलाकृति |
ममता
ममता का कोई धर्म नहीं होता ,
और, ना होती जाति माँ की ,
आँचल ही है उसकी पहचान
स्नेह ही है उसका धर्म
जैसे ,एक फूल का धर्म है खिलना .
जैसे एक नदी का धर्म है बहना.
जैसे ,एक पेड़ का धर्म है छाया देना ….
खिलती है माँ भी बच्चों को देख ,
बहाती है नेह क्षीर .
देती है आँचल की छाया ,
सदा -सदा ,
सचमुच ही
यदि , वह है…..माँ …..
तो………!
बेटियां धरती की
बेटियां धरती की
कब कैद हो पाई है
ख़ुशबू फूलों की,
तितलियाँ कब रुकी हैं
उड़ने से ,
ज्योंही खुलता है पिंजरा… ज़रा सा –
उड़ जाती हैं चिड़ियाँ
खुले आकाश में ,
और नानी माँ की रोचक– मनहर कहानियों के
तिलिस्मी संसार से
निकल आईं हैं बाहर
सारी परियां ……
नहीं रही हैं मात्र कल्पना की उड़ान
अपितु उड़ रही है सच्ची –मुच्ची की कल्पना (चावला )
असीम आकाश में …
जाती है चाँद के आँगन में सुनीता विलियम्स ’
खेलती है सितारों को बना कर सटापू*
झूलती है स्पेस-शटल में ’”नाओकोयामाजाकी ”*
गुनगुनाती है चंदा के कान में “ लिंडन बर्गर ”*
और “ट्रेस डायसन ” करती है गुदगुदी
गगन के बदन पर
स्कीइंग करती है शून्य में “स्टेफनी विल्सन ”
और ….ना जाने कितनी ही
सृजनरत सृजनाएं
धरती के आँचल से
उड़ कर
अंतरिक्ष के अंगना में
लिख रही हैं नाम सितारों पर…..
फैला रही हैं धरती की ख़ुशबू
सुदूर अंतरिक्ष में
ये नन्ही तितलियाँ
आजाद परियां
बेटियां धरती की !
aapka parichaya dekha , badhai ho
जवाब देंहटाएंaapki kavitayen parhi , achhi lagi,
aapne man ke bhavon ko sunder aur prabhav shali
tarike se prastut kiya hai,
-om sapra, 9818180932
and
prof kuldip salil,
deli-9