तुम पूछते हो
मुझे अपना वतन
याद आता है या नहीं
दिल्ली की चाट
मुंबई की भेल पूरी
मेरे सपनों में आते हैं या नहीं
दोसा, इ़डली, गोलगप्पे
मेरे स्वाद तंतुओं को
परेशान करते हैं या नहीं।
तुम पूछते हो
दोस्तों की याद आती है या नहीं।
तुम्हारी आंखों में पढ लेता हू
यह सवाल कि क्या
मां की प्रतीक्षारत आंखें मेरी
रातों की नींद में आंसू
भर देती हैं या नहीं।
मुझे बार बार याद दिलाते हैं
तुम्हारे सवाल
कि मैनें इस मुल्क़ में आकर
बसने में
बहुतों से ग़द्दारी की है।
सच यह नहीं है मेरे दोस्त
जब साउथहॉल से गुज़रता हूं
साक्षात हो उठता है चांदनी चौक।
वही ख़ुश्बू, वही स्वाद, वही बोली।
सब कुछ वैसा ही है।
ईलिंग रोड मुझे करता है आश्वस्त
कि मैं दूर नहीं हूं मुंबई से।
साड़ी की दुकानें, वी.बी. एण्ड सन्स
मसाले, दालें, सब अपने से लगते ब्राण्ड
वही अचार, वही साबुन और आयुर्वेदिक पेस्ट
कुछ भी नहीं बदला।
सब कुछ वैसा ही है।
मेरा वतन मेरे साथ
यहां चला आया है।
मगर सच है
कभी कभी ये होता है
हो जाता हूं अकेला
वर्षों बाद भी नहीं बोल पाता
यहां जैसी ग़लत अंग्रेज़ी
सही बोल कर भी टटोलता हूं
अपनी नाक
नकटा तो नहीं हो गया।
याद आती है उन आंखों की
जो टेलिफ़ोन आने पर
भर जाती हैं ख़ुशियों से
मोहल्ले भर को बताता हैं
कि फ़ोन बेटे का है।
याद आते हैं वो रिश्ते
जिनसे रिश्ता बिना मतलब का था।
रुकता हूं
होता हूं परेशान
सोचता हूं
धीरे धीरे वही करता हूं
जो करता हूं रोज़ाना
कपड़े पहनता हूं
जूते कसता हूं
और चल देता हूं
रेलवे स्टेशन की ओर.
- तेजेन्द्र शर्मा, लन्दन
मेरे सपनों में आते हैं या नहीं
दोसा, इ़डली, गोलगप्पे
मेरे स्वाद तंतुओं को
परेशान करते हैं या नहीं।
तुम पूछते हो
दोस्तों की याद आती है या नहीं।
तुम्हारी आंखों में पढ लेता हू
यह सवाल कि क्या
मां की प्रतीक्षारत आंखें मेरी
रातों की नींद में आंसू
भर देती हैं या नहीं।
मुझे बार बार याद दिलाते हैं
तुम्हारे सवाल
कि मैनें इस मुल्क़ में आकर
बसने में
बहुतों से ग़द्दारी की है।
सच यह नहीं है मेरे दोस्त
जब साउथहॉल से गुज़रता हूं
साक्षात हो उठता है चांदनी चौक।
वही ख़ुश्बू, वही स्वाद, वही बोली।
सब कुछ वैसा ही है।
ईलिंग रोड मुझे करता है आश्वस्त
कि मैं दूर नहीं हूं मुंबई से।
साड़ी की दुकानें, वी.बी. एण्ड सन्स
मसाले, दालें, सब अपने से लगते ब्राण्ड
वही अचार, वही साबुन और आयुर्वेदिक पेस्ट
कुछ भी नहीं बदला।
सब कुछ वैसा ही है।
मेरा वतन मेरे साथ
यहां चला आया है।
मगर सच है
कभी कभी ये होता है
हो जाता हूं अकेला
वर्षों बाद भी नहीं बोल पाता
यहां जैसी ग़लत अंग्रेज़ी
सही बोल कर भी टटोलता हूं
अपनी नाक
नकटा तो नहीं हो गया।
याद आती है उन आंखों की
जो टेलिफ़ोन आने पर
भर जाती हैं ख़ुशियों से
मोहल्ले भर को बताता हैं
कि फ़ोन बेटे का है।
याद आते हैं वो रिश्ते
जिनसे रिश्ता बिना मतलब का था।
रुकता हूं
होता हूं परेशान
सोचता हूं
धीरे धीरे वही करता हूं
जो करता हूं रोज़ाना
कपड़े पहनता हूं
जूते कसता हूं
और चल देता हूं
रेलवे स्टेशन की ओर.
- तेजेन्द्र शर्मा, लन्दन
bahut sundar bhavpoorn rachna, tejendra ji.
जवाब देंहटाएंbhai tajender ji
जवाब देंहटाएंnamastey,
bahut sunder aur prabhav shali kavita "yaden" ke liye badhai ho
hamari shubhkamnayen,
"purvai" ki prati bhejne ka kasht karen,
uski samiksha hamare ek mitra ki magazine "mitra sangam patrika" monthly mein dene ka vichar hain,
uske editor shri prem vohra, all india radio se retire hue hain,
agrim dhanyavad
-om sapra
N-22,
behind batra cinema,
dr. mukherji nagar,
delhi-9
09818180932
मित्रो, हरीश भाई को कविता लगाने के लिये धन्यवाद। आपको कविता पसन्द आई, अच्छा लगा। एक बात साफ़ करना चाहूंगा कि मैनें पुरावाई पत्रिका का संपादन 2 वर्षों के लिये किया था। उसके बाद से उसका संपादन मैनें वापिस डा. पद्मेश गुप्त को सौंप दिया था, जो कि आजकल इसके संपादक हैं।
जवाब देंहटाएंबेहद खूबसूरत भाव ......हर कोई अपना घर अपना वतन यादों में बसा कर रखता हैं ....
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत खूबसूरत तेजेंद्र जी.दिल खुश हो गया.
जवाब देंहटाएंdil ki gahraio se likhi uttam bhaw liye behad khoobsurat rachna ,tejinder sharma ji sunder likhne ke liye badhai .
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